🔴 वशिष्ठजी बोले, हे राम ! जिज्ञासु होकर ज्ञाननिष्ठ होना और जो कुछ गुरुशास्त्रों से आत्मविशेषण सुने हैं उनमें अहं प्रत्यय करके स्थित होना, इसी का नाम ज्ञाननिष्ठा है। जीव इस ज्ञाननिष्ठा से परम उच्च पद को प्राप्त होता है, जो सबका अधिष्ठान है।
🔴 जब उसमें स्थित हुआ, तब कर्मों के फल का ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि शुभकर्मों के फल में राग नहीं रहता और अशुभ कर्मों के फल में द्वेष नहीं होता। ऐसा पुरुष ज्ञानी कहलाता है। वह शान्त-चित्त रहता है, अकृत्रिम शान्ति को प्राप्त होता है, किसी विषय के सम्बन्ध में नहीं फँसता । उसकी वासना की गाँठ टूट जाती है।
🔴 हे राम ! बोध वही है जिसको पाने से फिर जन्म न हो, और जो जन्ममरण से रहित हो उसी को ज्ञानी कहते हैं। जब संसार से विमुख हो और संसार की सत्यता न भासित हो, तब जानिये कि फिर जन्म न पावेगा; क्योंकि उसकी संसार की वासना नष्ट हो गई है।
🔴 हे राम ! जिससे ज्ञानी की वासना नष्ट होती है, वह भी सुनो। वह इस संसार का कारण नहीं देखता । जो पदार्थ कारण से उत्पन्न नहीं हुआ, वह सत्य नहीं होता, इससे संसार मिथ्या है। जैसे रस्सी में सर्प भासित होता है तो उसका कारण कोई नहीं, वह भ्रम से सिद्ध हुआ है, वैसे ही यह विश्व कारण के बिना दिखता है, इससे मिथ्या है। जो मिथ्या है तो उसकी वासना कैसे हो ?
🔴 हे राम ! जो प्रवाहपतित कार्य प्राप्त हो उसमें ज्ञानी विचरता है और संकल्प से रहित होकर अपना अभिमान कुछ नहीं करता कि इस प्रकार हो और इस प्रकार न हो। वह हृदय से आकाश की तरह संसार से न्यारा रहता है और वासना से शून्य होता है। ऐसा पुरुष पण्डित कहाता है।
🔴 हे राम ! यह जीव परमात्मरूप है। जब अचेतन अर्थात् संसार की वासना से रहित हो, तब आत्मपद को प्राप्त हो । जैसे आम का वृक्ष फल से रहित होने पर भी उसका नाम आम है, परन्तु निष्फल है, वैसे ही यह जीव आत्मस्वरूप है, परन्तु चित्त के सम्बन्ध से इसका नाम जीव है। जब चित्त को त्याग करे, तब आत्मा हो।
🔴 जैसे आम के पेड़ में फल लगने से वह शोभित होता है और सफल कहलाता है। वैसे ही जब जीव आत्मपद को प्राप्त होता है, तब महाशोभा से विराजता है।
🔴 हे राम ! ज्ञानवान् पुरुष कर्म के फल की स्तुति नहीं करता अर्थात् इन्द्रियों के इष्ट विषय की चाह नहीं करता, जैसे जिस पुरुष ने अमृतपान किया हो वह मद्यपान करने की इच्छा नहीं करता, वैसे ही जिसको आत्मसुख प्राप्त होता है, वह विषयों के सुख की इच्छा नहीं करता।
🔴 जो किसी पदार्थ को पाकर सुख मानते हैं, वे मूढ़ हैं। जैसे कोई पुरुष कहे कि बन्ध्या के पुत्र के काँधे पर चढ़कर नदी के पार उतरते हैं तो वह पुरुष महामूढ़ है; क्योंकि जब बन्ध्या के पुत्र है ही नहीं तो उसके काँधे पर कैसे चढ़ेगा, वैसे ही जो कोई कहे कि मैं संसार के किसी पदार्थ को लेकर मुक्त हूँगा तो वह महामूढ़ है।
🔴 हे राम ! ऐसा पुरुष ज्ञान से शून्य है । उसकी इन्द्रियाँ स्थिर नहीं होतीं । वह शास्त्रों के अर्थ प्रकट भी करता है, पर परमात्मा के ज्ञान से रहित है । उसको इन्द्रियाँ बलपूर्वक विषयों में गिरा देती हैं। जैसे चील पक्षी आकाश में उड़ता उड़ता मांस को देखकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है, वैसे ही अज्ञानी विषय को देखकर गिर पड़ता है। इससे मन सहित इन इन्द्रियों को वश करो और युक्ति से तत्परायण और अन्तर्मुख बनो।
🔴 यह जो संवेदन उठता है, उसका त्याग करो। जब इसका स्फुरण निवृत्त होगा, तब परमात्मा का साक्षात्कार होगा । जब परमात्मा का साक्षात्कार होगा, तब रूप, अवलोक और मनस्कार की जो त्रिपुटी है, उसके अर्थ की सब भावना जाती रहेगी; केवल आत्मतत्त्व ही प्रत्यक्ष भासित होगा और संसार का अत्यन्त अभाव हो जावेगा।
श्री योगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे-पेज न.- 4222 -423