🔴 वशिष्ठजी बोले, हे राम ! जब देश से देशान्तर को वृत्ति जाती है तो उसके बीच जो संवित्तत्त्व है, उसका जो अनुभव करता है, वही तुम्हारा स्वरूप है।
🔴 उसमें स्थित होओ और जैसी चेष्टा आवे, वैसी करो । देखो, सुनो, स्पर्श करो, गन्ध लो, बोलो, चलो, हँसो, सब किया करो; परन्तु इनको जाननेवाली जो अनुभवसत्ता है, उसी में स्थित रहो ।यह जाग्रत् में सुषुप्ति है। चेष्टा शुभ करो और हृदय में अहं से रहित शिला की भाँति रहो।
🔴 हे राम ! तुम्हारा स्वरूप निराभास, निर्मल और शान्त है । जैसे सुमेरु पर्वत स्थित है, वैसे ही रहो। यह दृश्य अज्ञान से भासित होता है, पर तमोरूप है और आत्मा सदा प्रकाशरूप है। उस प्रकाश में अज्ञानी को तम भासित होता है।
🔴 जैसे सूर्य सदा प्रकाशरूप है, पर उल्लू पक्षी को नहीं देख पड़ता, और अज्ञान के कारण अँधेरा ही जान पड़ता है, वैसे ही अज्ञानी को जो अविद्यारूप जगत् भासित होता है, वह अविचार से सिद्ध है अविद्या से उसकी विपर्ययदृष्टि हुई है।
🔴 पर उसका वास्तव स्वरूप निर्विकार है, अर्थात् जायते, अस्ति, वर्द्धते, परिणमते व्यपक्षीयते, नश्यते ( उत्पन्न होना, होना, बढ़ना, रूपान्तर, क्षय और विनाश) इन षट विकारों से रहित हैं । पर वह उसको विकारी जानता है।
🔴 आत्मा निर्विकार, निराकार है, पर उसको साकार जानता है। आत्मा आनन्दरूप है, पर उसको दुखी जानता है। आत्मा शान्तरूप है, पर उसको अशान्त जानता है। आत्मा महत् है, पर उसको लघु जानता है। आत्मा पुरातन है, पर उसको उपजा मानता है।
🔴 आत्मा सर्वव्यापक है, पर उसको परिच्छिन्न मानता है। आत्मा नित्य है, पर उसको अनित्य देखता है। आत्मा चैत्य से रहित शुद्ध चिन्मात्र हैं, पर यह उसे चैत्यसंयुक्त देखता है । आत्मा चैतन्य है, यह उसे जड़ देवता है । आत्मा अहं से रहित सदा अपने स्वभाव में स्थित है, पर यह अनात्म शरीर में अहं प्रतीति करता है।
🔴 आत्मा में अनात्मभावना में और अनात्मा आत्मभावना करता है । आत्मा निरवयव है, उसको यह अवयवी देखता है। आत्मा अक्रिय है, उसको यह सक्रिय देखता है। आत्मा निरंश है, उसको अंशाशीभाव करके देखता है। आत्मा निरामय है, पर उसको रोगी देखता है । आत्मा निष्कलङ्क है, पर उसको कलङ्कसहित देखता है । आत्मा सदा प्रत्यक्ष है, उसको परोक्ष जानता है और जो परोक्ष है, उसको प्रत्यक्ष जानता है।
🔴 हे राम ! यह सब विकार आत्मा में अज्ञान से देखता है, पर आत्मा शुद्ध और सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल, बड़े से बड़ा, लघु से लघु, और सर्व शब्द और अर्थ का अधिष्ठान है।
🔴 हे राम ! ब्रह्मरूपी एक डब्बा है, उसमें जगतरूपी रत्न है । पर्वत और वन सहित भी जगत् देख पड़ता है, परन्तु आत्मा के निकट रुई के रोम सा लघु है । आत्मारूपी वन हैं, उसमें संसाररूपी मञ्जरी उपजी है । पाँचों तत्त्व- पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश उसके पत्ते हैं। उनसे यह शोभित है ।
🔴 यह अहंता के उदय होने से उदय होती है और अहंता का नाश होने से नष्ट होती है। आत्मा एक समुद्र है, उसमें जगत्रूपी तरङ्ग हैं। वे उठती भी हैं और लीन भी हो जाती हैं। आत्माकाश में संसार भ्रममात्र है। आकाश वृक्ष की तरह है और आत्मा के प्रमाद से भासित होता है।
🔴 हे राम ! मायारूपी चन्द्रमा की किरणें यह जगत् है और नेतिशक्ति नृत्य करनेवाली है । ये तीनों अविचार से सिद्ध हैं और विचार करने से शान्त हो जाते हैं।
🔴 जैसे दीपक हाथ में लेकर देखिये तो अन्धकार नहीं देख पड़ता, वैसे ही विचार करके देखिये तो जगत् का अभाव हो जाता है और केवल शुद्ध आत्मा ही प्रत्यक्ष होता है।
🔴 हे राम ! यह जगत् कुछ बना नहीं, जैसे किसी ने बरफ कही और किसी ने शीतलता कही तो उसमें भेद नहीं, वैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं । जो भेद भासित होता है, वह भ्रममात्र हैं । जैसे तागे और पट में कुछ भेद नहीं, वैसे ही आत्मा और जगत् में भी कुछ भेद नहीं है।
🔴 हे राम ! आत्मरूपी पट में जगत्रूपी चित्र-पुतलियाँ हैं और आत्मरूपी समुद्र में जगत्रूपी तरङ्ग हैं, सो पट और जलरूप हैं, वैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं- आत्मा ही है; आत्मा से भिन्न कुछ नहीं बना। जिससे सब पदार्थ सिद्ध होते हैं, जिससे सब क्रिया सिद्ध होती हैं और जो अनुभवरूप सदा अप्रौढ़ है, उसको प्रौढ़ जानना ही मूर्खता है।
🔴 हे राम ! यह विश्व तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम जागकर देखो, तुम ही एक हो और स्वच्छ आकाश, सूक्ष्म, प्रत्यक्ष ज्योति अपने रूप में स्थित है।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थयोगोपदेशो नाम
शताधिक पञ्चपञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ १५५ ॥
श्री योगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे-पेज न.- 462 -464