🔴 हे राम ! संसार का आदि परमात्मतत्त्व है और अन्त भी वही है । जैसे स्वर्ण गलाइये तो भी स्वर्ण है और जो न गलाइये तो भी स्वर्ण है, वैसे ही जब सृष्टि का अभाव होता है तब भी आत्मा ही शेष रहता है, जब सृष्टि उपजी न थी तब भी आत्मा ही था और मध्य भी वही है । परन्तु यह सम्यकदर्शी को भासित होता है, असम्यकदर्शी को आत्मसत्ता नहीं भासित होती।
🔴 हे राम ! विश्व आत्मा का परिणाम नहीं, चमत्कार है । जैसे सुवर्ण गलता है तो उसकी रैनीसंज्ञा होती है अथवा शलाका कहाती है । यद्यपि उसमें भूषण नहीं हुए तो भी उसका चमत्कार ऐसा ही होता है कि उससे भूषण उपजकर लीन हो जाता है। जैसे सूर्य की किरणें जल का आभास देती हैं, वैसे ही विश्व आत्मा का चमत्कार है । बना कुछ नहीं, आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है और उसका चमत्कार विश्व होकर स्थित हुआ है।
🔴 हे राम ! जब तुमने ऐसे जाना कि केवल आत्मसत्ता है, तब वासना का क्षय हो जावेगा और चेष्टा स्वाभाविक होगी। जैसे वृक्ष के पत्ते पवन से हिलते हैं, वैसे ही शरीर की चेष्टा प्रारब्धवेग से होगी।
🔴 हे राम ! देखने भर को तुम्हारे शरीर में क्रिया होगी और हृदय में शून्य भासित होगा । जैसे यन्त्र की पुतली संवेदन बिना तागे से चेष्टा करती है, वैसे ही शरीर की चेष्टा प्रारब्ध से स्वाभाविक होगी और तुमको उसका अभिमान न होगा।
🔴 जैसे कोई पुरुष दूध के लिए अहीर के पास बर्तन ले जाय और उसको दूध दुहने में कुछ विलम्ब हो तो कहे कि बर्तन यहाँ रक्खा है, मैं घर से कोई काम शीघ्र ही कर आऊँ तो यद्यपि वह घर का काम करने लगता है, पर उसका मन दूध की ओर ही रहता है कि शीघ्र ही जाऊँ, ऐसा न हो कि वह दुहता हो, वैसे ही तुम्हारी क्रिया प्रारब्धवेग से होगी, पर मन आत्मतत्त्व में रहेगा और तुम अहंकार से रहित होगे।
🔴 जबतक अहंकार उठता है, तबतक परिच्छिन्न अर्थात् तुच्छ जीव है, उसको शरीर मात्र का ज्ञान होता है । पर अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित जो जीव है, उसको नखशिखपर्यन्त शरीर का ज्ञान होता है । इसी में आत्मअभिमान होता है। ज्ञान नहीं होता, इससे जीव हैं । जो पहले तुमसे कहा है, वह विराट् ही ईश्वर है । वह सब शरीर और अन्तःकरण का ज्ञाता, सब लिंग शरीर का अभिमानी, सबको अपना रूप जानता है।
🔴 हे राम ! यद्यपि वह विश्वरूप है, तो भी अहंकार से तुच्छसा हुआ है । जैसे घनघटा से भिन्न हुआ एक मेघ बादल कहाता है, और घट से अनन्त आकाश घटाकाश कहाता है, पर वह बादल भी मेघ है और घटाकाश भी महाकाश है, वैसे ही अहं के स्फुरण से जीव परिच्छिन्न हुआ है, सो फुरना दृश्य में हुआ है, और दृश्य फुरने में हुआ है। जैसे फूलों में गन्ध और तिलों में तेल है, वैसे ही फुरने में दृश्य है।
🔴 हे राम ! आत्मा में बुद्धि आदिक स्फुरण है, अर्थात् जब ‘मैं हूँ’ ऐसे फुरता है, तब आगे दृश्य होता है और जब अहंकार होता है, तब आगे देह इन्द्रियादिक विश्व रचता है । इससे फुरने में दृश्य हुआ और फुरना दृश्य में हुआ । देह, इन्द्रियाँ, मन आदिक जो दृश्य हैं, उनमें जीव के अहंप्रत्यय से फुरना हुआ है; इसी कारण इसकी जीवसंज्ञा हुई है। जब फुरना या अहंभाव नष्ट हो जावे तब आत्मा का साक्षात्कार हो । यह जन्म, मरण, आना, जाना आदि विकारों से युक्त प्रपञ्च भासित होता है तो भी मिथ्या है; क्योंकि विचार करने से कुछ नहीं रहता।
🔴 जैसे केले के खम्भे में कुछ सार नहीं; वैसे ही विचार करने से प्रपञ्च नहीं रहता । जैसे स्वप्न में मनुष्य अपना जन्म, मरण, आना, जाना देखता है, परन्तु वह सब मिथ्या है, वैसे ही जाग्रत की सब क्रिया भी मिथ्या है।
श्री योगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे-पेज न.- 424 -425