“युद्ध और शांति”

संपादकीय

मृत्यु की भूमि पर बिछी रेतें हैं,
जहाँ पांवों के निशान रह जाते हैं।
संगीनें न हो, तो भी रक्त का रंग,
समय के थपेड़े फिर भी जगाते हैं।

हां, युद्ध से पिघलती है शांति की शिला,
धधकते अंगारों पर तपती जीवन की माया।
कभी अहंकार के काले बादल छाए थे,
अब आकाश में बिछा सफेद प्रेम का साया।

युद्ध ने रची एक नई कहानी,
जहाँ नायक नहीं, केवल दुखों की निशानी।
हर रक्तपात में छुपा एक नवीन गीत,
जो गा रहा है जीवन की सच्ची रीत।

प्रकाश हो उठे फिर अंधकार में,
क्योंकि युद्ध से ही शांति का बीज उगे।
शक्ति से कभी समझौता नहीं किया,
क्योंकि शांति के लिए, युद्ध में भी जीते।

  • डॉ सत्यवान सौरभ

जय हिन्द 🇮🇳

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