रमेश वर्मा : “कुर्सी नहीं, भरोसे की राजनीति”, स्वयं नहीं लड़ा विधायक  का चुनाव, मगर कई विधायकों के बने खेवनहार

राजनीति


✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ

गांव की राजनीति को अक्सर स्वार्थ, गुटबाज़ी और जातिगत समीकरणों के चश्मे से देखा जाता है। लेकिन कभी-कभी उसी मिट्टी से ऐसे लोग भी निकलते हैं, जो यह साबित कर देते हैं कि राजनीति केवल सत्ता पाने का माध्यम नहीं, बल्कि जनसेवा का सच्चा रास्ता भी हो सकती है। हरियाणा के भिवानी ज़िले के छोटे से गांव बड़वा से निकलने वाले रमेश वर्मा इसी सोच का जीवंत उदाहरण हैं। उनके चार दशक से अधिक लंबे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सत्ता की लालसा नहीं, बल्कि सेवा का संस्कार दिखाई देता है।
रमेश वर्मा की यात्रा उस पीढ़ी से शुरू होती है, जब पंचायत केवल निर्णय का मंच नहीं बल्कि संवाद का प्रतीक हुआ करती थी। वर्ष 1983 में उनके पिता किशना राम सिंहमार के ग्राम सरपंच चुने जाने के समय से ही उन्होंने प्रशासनिक कार्य, गांव के विकास की जरूरतों और जनहित के मुद्दों को करीब से देखा। यही अनुभव उनकी राजनीतिक सोच की नींव बना। उस दौर में युवा रमेश ने पंचायत के कार्यों में सहयोग कर यह सीखा कि जनता का विश्वास सबसे बड़ी पूंजी होती है। राजनीति में यह सीख उन्हें आगे भी दिशा देती रही।
वर्ष 1996 में उन्होंने पहली बार जिला परिषद सदस्य के चुनाव में भाग लिया। 10 उम्मीदवारों में द्वितीय स्थान प्राप्त करना उस समय न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि थी, बल्कि यह संकेत भी कि बड़वा का यह युवा अपने गांव से आगे सोचने लगा था। तीन साल बाद, 1999 में, जब उन्हें हरियाणा सरकार द्वारा मार्केट कमेटी सिवानी (हल्का बवानी खेड़ा) का चेयरमैन नियुक्त किया गया, तब उन्होंने प्रशासनिक जिम्मेदारी को जनकल्याण की दृष्टि से निभाया। उस कार्यकाल में स्थानीय किसानों के हित, मंडी व्यवस्था की पारदर्शिता और व्यापारियों की सुविधाओं पर उनका ध्यान विशेष रहा।
रमेश वर्मा की राजनीति का दूसरा चरण 2005 में शुरू होता है, जब वे दोबारा अपने गांव के सरपंच चुने गए। पांच वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने जिस समर्पण से ग्राम पंचायत को विकास के मार्ग पर अग्रसर किया, वह आज भी चर्चा का विषय है। सड़क, पानी, स्ट्रीट लाइट, नालियां, स्कूल भवन और मंदिर-पार्क जैसी परियोजनाओं में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। लोगों का कहना है कि उन्होंने राजनीति को दिखावे का साधन नहीं, बल्कि समाज निर्माण का माध्यम बनाया।
2016 में जब वे पंचायती चुनाव में मात्र 71 वोटों से दूसरे स्थान पर रहे, तब भी उन्होंने इसे पराजय नहीं, बल्कि जनता के नए मिज़ाज का सम्मान माना। यह विनम्रता और आत्म स्वीकार ही उन्हें आम नेताओं से अलग बनाती है। उस हार के बाद भी उन्होंने समाजसेवा का कार्य जारी रखा और अगले तीन वर्षों में लोहारू विधानसभा चुनाव (2019) में सक्रिय रूप से संगठन और प्रचार कार्य संभालकर यह साबित किया कि उनकी निष्ठा पद से नहीं, उद्देश्य से जुड़ी है। भले ही उन्होंने स्वयं विधायक पद का चुनाव नहीं लड़ा, पर कई विधायकों की ‘डूबती नैया’ पार लगवाई। यह उनकी रणनीतिक सूझबूझ और जनसंपर्क कौशल का प्रमाण था — वे हर मोर्चे पर पार्टी और समाज के हित में मजबूती से खड़े रहे।
सिर्फ राजनीति ही नहीं, रमेश वर्मा की पहचान एक समाजसेवी के रूप में भी गहरी है। “स्वच्छ भारत अभियान” के दौरान उन्होंने न केवल गांव में सफाई अभियान चलाया, बल्कि लोगों को व्यवहारिक रूप से स्वच्छता की आदत डालने की प्रेरणा दी। महिलाओं के लिए उन्होंने स्वयं सहायता समूह (SHG) की शुरुआत की, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें। कोविड-19 महामारी के कठिन दौर में उन्होंने राशन, मास्क और सैनिटाइज़र वितरण में सक्रिय भागीदारी निभाई, जबकि अधिकांश लोग भय से घरों में सीमित थे। उनके लिए सेवा किसी अवसर की प्रतीक्षा नहीं करती — वह जीवन का हिस्सा है। युवाओं के लिए रमेश वर्मा ने कई खेलकूद प्रतियोगिताओं और करियर काउंसलिंग शिविरों का आयोजन करवाया। उनका मानना है कि गांव का युवा यदि सही दिशा और प्रेरणा पाए, तो उसे शहर की ओर पलायन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यही सोच उन्हें स्थानीय स्तर पर शिक्षा और रोजगार को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करती है।
उनकी राजनीतिक शैली में सबसे उल्लेखनीय बात है पारदर्शिता और जवाबदेही। उन्होंने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि किसी भी योजना या विकास कार्य में जनता की भागीदारी हो। गांव की बैठकों में हर मुद्दे पर खुलकर चर्चा होती रही। उनका यह विश्वास कि “राजनीति लोगों पर हुकूमत नहीं, बल्कि लोगों के बीच रहकर सेवा करने का नाम है” — उनकी पहचान बन गया है।
रमेश वर्मा का नेतृत्व केवल निर्णयों में नहीं, बल्कि संवाद में दिखता है। वे लोगों की समस्याएँ सुनते हैं, अधिकारियों से समाधान करवाते हैं और परिणाम सामने आने तक उसका फॉलोअप करते हैं। इस व्यवहारिक राजनीति ने उन्हें एक भरोसेमंद चेहरा बना दिया है। यही कारण है कि वे 40 से अधिक गांवों में विकास योजनाओं के लिए बजट स्वीकृत करवाने में योगदान दे पाए।
वर्ष 1983 से 2025 तक का उनका सामाजिक जीवन सम्मान और सीख दोनों से भरा है। हिसार और भिवानी के कई गांवों में उन्हें विभिन्न सामाजिक संगठनों और सांस्कृतिक मंचों द्वारा सम्मानित किया गया। 2024 में स्थानीय अख़बारों में उन पर विशेष लेख प्रकाशित हुए, जिनमें उन्हें “जागरूक नेता और समाजसेवी” कहा गया।
रमेश वर्मा की राजनीति में जो सबसे अलग दिखाई देता है, वह है ईमानदारी की निरंतरता। अक्सर नेता चुनाव के समय जनता के बीच दिखते हैं, फिर पांच साल गायब रहते हैं, लेकिन रमेश वर्मा के मामले में यह पैटर्न उलटा है। वे हर परिस्थिति में अपने क्षेत्र के लोगों के बीच मौजूद रहते हैं — चाहे कोई समस्या हो या उत्सव। यह निरंतर जुड़ाव ही उन्हें “जनता का आदमी” बनाता है, न कि सिर्फ “पद का व्यक्ति।” उनकी दृष्टि साफ है — राजनीति में पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ-साथ शिक्षा, रोजगार, किसानों की सुरक्षा और महिलाओं-युवाओं के सशक्तिकरण को प्राथमिकता देना। वे मानते हैं कि गांव और शहर के बीच विकास की खाई तभी पाटी जा सकती है, जब स्थानीय स्तर पर संसाधनों और अवसरों का समान वितरण हो।
आज जब राजनीति का बड़ा हिस्सा प्रदर्शन, बयानबाज़ी और प्रचार तक सिमट गया है, तब रमेश वर्मा जैसे नेता यह याद दिलाते हैं कि “नेतृत्व का मतलब लोकप्रियता नहीं, जिम्मेदारी होता है।” वे जनता को वोट बैंक नहीं, परिवार समझते हैं। यही कारण है कि उनके समर्थक उन्हें “नेता” नहीं बल्कि “सेवक” कहकर बुलाते हैं।
हरियाणा की राजनीति में जहां युवा पीढ़ी में तेज़ी से बढ़ते स्वार्थ और लाभवाद के बीच ईमानदार नेतृत्व की कमी महसूस की जा रही है, वहां रमेश वर्मा जैसे जनप्रतिनिधि उम्मीद की एक नई किरण हैं। उनकी यात्रा यह संदेश देती है कि गांव की गलियों से भी ऐसे नेता निकल सकते हैं जो प्रदेश और देश के स्तर पर नये मानक स्थापित करें। आज जब लोकतंत्र को फिर से जनसंपर्क से जोड़ने की जरूरत महसूस हो रही है, तब रमेश वर्मा जैसे लोगों की कहानियाँ लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करती हैं। वे उस परंपरा के प्रतिनिधि हैं जिसमें नेता जनता से दूर नहीं, बल्कि जनता के साथ चलता है।
अगर भारत को सचमुच गांवों का देश कहा जाए, तो ऐसे नेताओं की भूमिका और भी बड़ी हो जाती है। क्योंकि गांव के नेता ही लोकतंत्र की पहली सीढ़ी होते हैं। और जब वह सीढ़ी मजबूत होती है, तभी ऊपर खड़ा ढांचा स्थायी रह सकता है। रमेश वर्मा जैसे जनप्रतिनिधि यही सुनिश्चित करते हैं कि लोकतंत्र की जड़ें केवल संविधान में नहीं, बल्कि गांव की मिट्टी में भी गहराई तक फैली रहें। अंततः, रमेश वर्मा की कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस सोच की कहानी है जो राजनीति को नैतिकता से जोड़ती है। वे यह साबित करते हैं कि “राजनीति में रहकर भी साफ़ रहा जा सकता है, यदि नीयत साफ़ हो।” उनका जीवन इस बात का साक्ष्य है कि जनसेवा यदि ईमानदारी से की जाए तो वह केवल गांव नहीं, बल्कि समाज की आत्मा को भी उजाला देती है।

लेखक कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट हैं। जो 333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा – 127045 के रहवासी है।

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